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सुमित्रानंदन पंत
जन्म
जन्म : 20 मई 1900
स्थल : उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के
कौसानी नामक गाँव में हुआ था
पिता : श्री गंगादत्त पन्त
माता : श्रीमती सरस्वती देवी
पेशा : लेखक, कवि, समाज विचारक
शिक्षा : हिन्दी साहित्य
खिताब : पद्म भूषण (1961)
ज्ञानपीठ पुरस्कार (1968)
मौत : 28 दिसम्बर 1977 (उम्र 77)
इलाहाबाद उत्तर प्रदेश, भारत
जीवन परिचय
सुकुमार भावनाओं के कवि और प्रकृति के चतुर-चितेरे श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी का जन्म 20 मई, सन् 1900 ई. को प्रकृति की सुरम्य गोद में अल्मोड़ा के निकट कौसानी नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम गंगादत्त पन्त तथा माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। इनके जन्म के छः घण्टे के बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया था; अतः इनका पालन-पोषण पिता और दादी के वात्सल्य की छाया में हुआ। उसका वर्णन सुमितानंदन पंथने काव्यमे इस तरह से लिखाहै कि
“ ज्ञात रहस्य मुझे एकाकी जीवन,
निज करनामे मुझे वरलिया तूने गोपन।
नही जानता मां तुम कब और कैसे आती हो ,
बन जीवन प्रेरणा नित्य नव मुस्काती हो ”
सुमित्रानंदन पंत जी ने अपनी शिक्षा का प्रारम्भिक चरण अल्मोड़ा में पूरा किया। यहीं पर इन्होंने अपना नाम गुसाईंदत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन रखा। इसके बाद वाराणसी के जयनारायण हाईस्कूल से स्कूल-लीविंग की परीक्षा उत्तीर्ण की और जुलाई, 1919 ई० में इलाहाबाद आये और म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। सन् 1921 ई० में महात्मा गांधी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर इन्होंने बी०ए० की परीक्षा दिये बिना ही कॉलेज त्याग दिया था। इन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला और हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। प्रकृति की गोद में पलने के कारण इन्होंने अपनी सुकुमार भावना को प्रकृति के चित्रण में व्यक्त किया।
सुमित्रानंदन पंत जी ने प्रगतिशील विचारों की पत्रिका ‘रूपाभा’ का प्रकाशन किया। सन् 1942 ई० में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से प्रेरित होकर ‘लोकायन’ नामक सांस्कृतिक पीठ की स्थापना की और भारत भ्रमण हेतु निकल पड़े। सन् 1950 ई० में ये ‘ऑल इण्डिया रेडियो’ के परामर्शदाता पद पर नियुक्त हुए और सन् 1976 ई० में भारत सरकार ने इनकी साहित्य-सेवाओं को ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया। इनकी कृति ‘चिदम्बरा’ पर इनको ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिला। 28 दिसम्बर, सन् 1977 ईस्वी (संवत् 2034 वि०) को इस महान् साहित्यकार ने इस भौतिक संसार से सदैव के लिए विदा ले ली और चिरनिद्रा में लीन हो गये।
साहित्य परिचय
सात वर्ष की उम्र में, जब वे चौथी कक्षा में ही पढ़ रहे थे, उन्होंने कविता लिखना शुरु कर दिया था। १९२६ में उनका प्रसिद्ध काव्य संकलन ‘पल्लव’ प्रकाशित हुआ। कुछ समय पश्चात वे अपने भाई देवीदत्त के साथ अल्मोडा आ गये। इसी दौरान वे मार्क्स व फ्रायड की विचारधारा के प्रभाव में आये। १९३८ में उन्होंने ‘रूपाभ’ नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला। शमशेर, रघुपति सहाय आदि के साथ वे प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुडे रहे। वे १९५० से १९५७ तक आकाशवाणी से जुडे रहे और मुख्य-निर्माता के पद पर कार्य किया। उनकी विचारधारा योगी अरविन्द से प्रभावित भी हुई जो बाद की उनकी रचनाओं ‘स्वर्णकिरण’ और ‘स्वर्णधूलि’ में देखी जा सकती है। “वाणी” तथा “पल्लव” में संकलित उनके छोटे गीत विराट व्यापक सौंदर्य तथा पवित्रता से साक्षात्कार कराते हैं। युगांत” की रचनाओं के लेखन तक वे प्रगतिशील विचारधारा से जुडे प्रतीत होते हैं। “युगांत” से “ग्राम्या” तक उनकी काव्ययात्रा प्रगतिवाद के निश्चित व प्रखर स्वरों की उद्घोषणा करती है।
उनकी साहित्यिक यात्रा के तीन प्रमुख पडाव हैं – प्रथम में वे छायावादी हैं, दूसरे में समाजवादी आदर्शों से प्रेरित प्रगतिवादी तथा तीसरे में अरविन्द दर्शन से प्रभावित अध्यात्मवादी। सन् १९०७ से १९१८ के काल को स्वयं उन्होंने अपने कवि-जीवन का प्रथम चरण माना है। इस काल की कविताएँ वाणी में संकलित हैं। सन् १९२२ में उच्छ्वास और १९२६ में पल्लव का प्रकाशन हुआ। सुमित्रानंदन पंत की कुछ अन्य काव्य कृतियाँ हैं – ग्रन्थि, गुंजन, ग्राम्या, युगांत, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, चिदंबरा, सत्यकाम आदि। उनके जीवनकाल में उनकी २८ पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें कविताएं, पद्य-नाटक और निबंध शामिल हैं। पंत अपने विस्तृत वाङमय में एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी के रूप में सामने आते हैं किंतु उनकी सबसे कलात्मक कविताएं ‘पल्लव’ में संगृहीत हैं, जो १९१८ से १९२५ तक लिखी गई ३२ कविताओं का संग्रह है। इसी संग्रह में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘परिवर्तन’ सम्मिलित है। ‘तारापथ’ उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है। [3] उन्होंने ज्योत्स्ना नामक एक रूपक की रचना भी की है। उन्होंने मधुज्वाल नाम से उमर खय्याम की रुबाइयों के हिंदी अनुवाद का संग्रह निकाला और डॉ. हरिवंश राय बच्चन के साथ संयुक्त रूप से खादी के फूल नामक कविता संग्रह प्रकाशित करवाया। चिदम्बरा पर इन्हे 1968 मे ज्ञानपीठ पुरस्कार से ,काला और बूढ़ा चांद पर साहित्त्य अकादमी पुरस्कार (1960) से सम्मानित किया गया ।
सुमित्रानंदन पंत जी ने प्रगतिशील विचारों की पत्रिका ‘रूपाभा’ का प्रकाशन किया। सन् 1942 ई० में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से प्रेरित होकर ‘लोकायन’ नामक सांस्कृतिक पीठ की स्थापना की और भारत भ्रमण हेतु निकल पड़े। सन् 1950 ई० में ये ‘ऑल इण्डिया रेडियो’ के परामर्शदाता पद पर नियुक्त हुए और सन् 1976 ई० में भारत सरकार ने इनकी साहित्य-सेवाओं को ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया। इनकी कृति ‘चिदम्बरा’ पर इनको ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिला। 28 दिसम्बर, सन् 1977 ईस्वी (संवत् 2034 वि०) को इस महान् साहित्यकार ने इस भौतिक संसार से सदैव के लिए विदा ले ली और चिरनिद्रा में लीन हो गये।
जुडे रहे और मुख्य-निर्माता के पद पर कार्य किया। उनकी विचारधारा योगी अरविन्द से प्रभावित भी हुई जो बाद की उनकी रचनाओं ‘स्वर्णकिरण’ और ‘स्वर्णधूलि’ में देखी जा सकती है। “वाणी” तथा “पल्लव” में संकलित उनके छोटे गीत विराट व्यापक सौंदर्य तथा पवित्रता से साक्षात्कार कराते हैं। युगांत” की रचनाओं के लेखन तक वे प्रगतिशील विचारधारा से जुडे प्रतीत होते हैं। “युगांत” से “ग्राम्या” तक उनकी काव्ययात्रा प्रगतिवाद के निश्चित व प्रखर स्वरों की उद्घोषणा करती है।
ज्ञानपीठ पुरस्कार से ,काला और बूढ़ा चांद पर साहित्त्य अकादमी पुरस्कार (1960) से सम्मानित किया गया ।
कलमश लांछन के कांटों में , खिला प्रेम का फूल धरा पर ”
प्रश्न-1 : आपकी इन पंक्तियोमे कलमश और लांछन क्या है ?
सुमित्रानंदन पंत का उत्तर :
लकमश और लांछन आज के धरती के जीवन की स्थितिया है जबकि आदमी प्रेमियों पर उंगली उठाना चाहते हैं और उनको होता है कि होता है कि यह केवल कुछ चुने हुए लोग हैं वह प्रेम की उच्च कल्पना नहीं कर शकते ।
मैं किशोरावस्था में ही कविता के प्रति आकर्षित हो गया था और सौंदर्य की प्रतिनिधि करता को मैंने स्त्री की उपमा दि है क्योंकि वह सौंदर्य की प्रतिनिधि है l में यह कहना चाहता था कि अगर प्रेम की अवस्था जो आज है वह तो लोह, मोह और लांछन से गिरी हुई है वह कभी सार्थक होगी। मैंने हमेशा स्त्री के लिए लिखा है की उसका हृदय तो तिजोरी में बंद है उनको ऐसा होना चाहिए कि जैसे फूल अपने नाल से बंदा रहता है वैसे स्त्री को अपने प्रियजनसे , घर से तो बंदा रहना चाहिए लेकिन अपनी हृदय की शोहरत जैसे फूल सुगंध सभी लोगों को देता है वैसे स्त्री को अपनी भावना समस्त लोगों को देना चाहिए क्यों कि स्त्री का सबसे सुंदर हिस्सा देह नहीं भावना है।
प्रश्न-2 : बीसवीं शताब्दी में नारी को नया रूप दिया है , स्त्री को इतना महत्व देते हो फिर भी अपने विवाह नहीं किया ? नहीं प्रेम प्रसंग आपसे जोड़ सकते तो अपने नारी को जिंदगी में इतना अछूता क्यों रख दिया ?
सुमित्रानंदन पंत का उत्तर :
खूब उभरी है। आप तो जानते हैं मेरी कविताओं में ‘ ग्रंथि ’ मे, ‘उच्चवास ’ में, ‘आंसू’ में है। मैं तो बहुत स्त्रीओ को प्यार करता हूं यह दूसरी बात है कि मैं किसी को अपना नहीं सका। स्त्रीओ को तो मैं बहुत अधिक प्यार करता हूं क्योंकि मैं मानता हूं कि भविष्य में अगर मनुष्य को कोई संस्कृत बन सकती है तो वो केवल स्त्री है। कब जब वह अपने सौंदर्य में, सौम्यता में लाऐ और मनुष्य को प्यार करना सिखाए नहीं कि अपने देह से । जैसे कि उस युग में और देह को प्रमुखता दी गई है और देह सतवास ने मनुष्य को भटकाया है ।
प्रश्न-3 :एक सहगामी की इच्छा होती है हर एक व्यक्ति को तो आपके सहगामीनी किसी भी वजह से नहीं होगी तो क्या उसकी एक झटपटहट आपकी कविता में नहीं उभरी होगी?
सुमित्रानंदन पंत का उत्तर :
खूब उभरी है। आप तो जानते हैं मेरी कविताओं में ‘ ग्रंथि ’ मे, ‘उच्चवास ’ में, ‘आंसू’ में है। मैं तो बहुत स्त्रीओ को प्यार करता हूं यह दूसरी बात है कि मैं किसी को अपना नहीं सका। स्त्रीओ को तो मैं बहुत अधिक प्यार करता हूं क्योंकि मैं मानता हूं कि भविष्य में अगर मनुष्य को कोई संस्कृत बना सकती है तो वो केवल स्त्री है। जब वह अपने सौंदर्य में, सौम्यता में लाऐ और मनुष्य को प्यार करना सिखाए नहीं कि अपने देह से । जैसे कि उस युग में और देह को प्रमुखता दी गई है और देह सतवास ने मनुष्य को भटकाया है।
प्रश्न-4 : आपने कविताएं लिखिए माक्स के प्रति, गांधीजी के प्रति, महर्षि अरविंद के प्रति उन सबके बारेमे कोई मेल बैठना चाहेगे ?
सुमित्रानंदन पंत का उत्तर :
मैंने उसे पर कविताएं लिखिए क्यों की माक्स का बहुत बड़ा इस विश्व के लिए योगदान है उसने एक दृष्टि दी है वैज्ञानिक दृष्टि और महर्षि अरविंदने तो भारतीय समस्त दर्शन को मतगार किया है। उसको आज के स्वरूप के अनुरूप बना दिया है। विवेकानंदजीने भी ऐसा किया है। गांधीजीने तो उसको कर्म की भूमि पर उतार दिया है तो गांधी जी को एक तरह से उसे संपूर्ण याद कीजिए।
प्रश्न-5 : पंतजी आपने बड़ा एककी जीवन बिताया ह जबकी आपका मित्र समुदाय भी बहुत बड़ा रहा है। दोस्तियां बनी दोस्तियां टूटी उनका प्यार उनका खारिश दोनों अपने पाए उसके बारे में कुछ कहना चाहेंगे
सुमित्रानंदन पंत का उत्तर :
मैंने कभी एककी अनुभव नहीं किया सच कहता हूं। इतने आंदोलनके विचार मेरे मन में रहे हैं। मैंने कभी खुदको एकाकी अनुभव नहीं किया। मेरे जो मित्र थे वह इस युग के एक विभाग में प्रतिनिधि है। प्रसादजीने कामायनी देकर इस भौतिक युगको एक अंतरदीस देने को प्रयास किया है। निराला मेरे बहुत बड़े मित्र रहे हैं लेकिन हम बहुत अलग-अलग स्वभाव के रहे लेकिन प्रभाव से दोस्ती में कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे ही महादेव रहे है। महादेव की जो गीत भावना है वह अद्वतीय रहे हैं। महादेवजी छायावाद नवनीत रहेहैं। इतनी मिठास, इतने वेदना उनमें है और इतना सौंदर्यभूत उनके काव्य में भी मिलता है।उसके बाद बच्चन मेरे बहुत बड़ा मित्र रहा है। उनके घर में बहुत बार रहा हूं और जैसे छोटे-मोटे भेदभाव होते रहते हैं दोस्तों में लेकिन उससे हमारे मित्रता में कोई प्रभाव नहीं पड़ा। नरेंद्र तो मेरा छोटा भाई की तरह रहे हैं। दिनकर उनको कौन बुला सकता है। “इस युग का सूर्य हूं मैं” कहता है तो सूर्य तो दिनकर रहे हैं। तो हमारा युग था बाकी उसमें एक से एक प्रकाशकेन्द्र रहे हैं और उससे मैं अपने आपको बहुत सोभाग्यसाली मानता हूं।
प्रश्न-6 : पंत जी अगर आपको जिंदगी दोबारा पुरी की पूरी मिले तो कौन सी ऐसी इच्छा है जो अपूर्ण रह गए उसे जरूर पूरा करना चाहेंगे
सुमित्रानंदन पंत का उत्तर :
मैं चाहता हूं कि संसार से विषमता मिट जाए। मैं चाहता हूं कि संसार मनुष्य के रहने के लायक हो जाए। यह धरती मानवीय हो जाए। उसमें स्त्री पुरुष का संबंध हो चाहे पुरुष पुरुष का संबंध हो एक तरह का संतुलित बन जाए। जो हम स्वर्ग की कल्पना करते हैं वह धरती पर ही सरकार हो जाए। और यह स्वर्ग और कहीं नहीं है इस धरती पर मनुष्य के भीतर है। उसे मनुष्य को अपने अंदर के स्वर्ग को इस धरती पर प्रतिष्ठित करना है। समस्त आगे आने वाले प्रायत्नो किसी और है। यह आज जो संक्रांति देख रहे हैं, यह बदलाव जो देखते हैं और न्यूक्लियर वेपंस बना रहे हैं यह तो जैसे कि पतझड़ आते हैं बसंत से पहले तब पत्ते झड़ते हैं तो यह तो विघटन का युग है पुराने मूल्य विघटन हो रहे हैं।